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वेर॑ध्व॒रस्य॑ दू॒त्या॑नि वि॒द्वानु॒भे अ॒न्ता रोद॑सी संचिकि॒त्वान्। दू॒त ई॑यसे प्र॒दिव॑ उरा॒णो वि॒दुष्ट॑रो दि॒व आ॒रोध॑नानि ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ver adhvarasya dūtyāni vidvān ubhe antā rodasī saṁcikitvān | dūta īyase pradiva urāṇo viduṣṭaro diva ārodhanāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वेः। अ॒ध्व॒रस्य॑। दू॒त्या॑नि। वि॒द्वान्। उ॒भे इति॑। अ॒न्तरिति॑। रोद॑सी॒ इति॑। स॒म्ऽचि॒कि॒त्वान्। दू॒तः। ई॒य॒से॒। प्र॒ऽदिवः॑। उ॒रा॒णः। वि॒दुःऽत॑रः। दि॒वः। आ॒ऽरोध॑नानि॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:7» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् (सञ्चिकित्वान्) उत्तम प्रकार कार्य करने की इच्छा करनेवाले (विद्वान्) विद्यावान् पुरुष ! (विदुष्टरः) अत्यन्त ज्ञाता हुए आप जो (वेः) व्याप्त (अध्वरस्य) न नष्ट करने योग्य व्यवहार के (दूत्यानि) संदेश पहुँचानेवाले के सदृश कर्म्मों को और (अन्तः) मध्य में (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (दूतः) संदेश पहुँचानेवाला (प्रदिवः) प्राचीन (उराणः) बहुत कार्य करता हुआ जाता है, उसको जानके (दिवः) प्रकाश के (आरोधनानि) सब प्रकार के ग्रहण करने को (ईयसे) प्राप्त होते हो, इससे सुख को प्राप्त होते हो ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो बिजुली रूप अग्नि सम्पूर्ण शिल्पिजन का दूत के सदृश प्रेरणा करनेवाला, अनादि काल से सिद्ध और सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है, उसकी उत्पत्ति और निरोध से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके ऐश्वर्य्य को प्राप्त होओ ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! संचिकित्वान् विद्वान् विदुष्टरस्संस्त्वं यो वेरध्वरस्य दूत्यान्यन्तरुभे रोदसी दूतः प्रदिव उराणो गच्छति तं विज्ञाय दिव आरोधनानीयसे तस्मात् सुखं प्राप्नोषि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वेः) व्याप्तस्य (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य (दूत्यानि) दूतवत् कर्माणि (विद्वान्) (उभे) (अन्तः) मध्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (संचिकित्वान्) सम्यक् चिकीर्षकः (दूतः) (ईयसे) प्राप्नोषि (प्रदिवः) प्राचीनः (उराणः) बहुकुर्वाणः (विदुष्टरः) अतिशयेन वेत्ता (दिवः) प्रकाशस्य (आरोधनानि) समन्तान्निग्रहणानि ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! या विद्युत्सर्वस्य शिल्पजनस्य दूतवत्प्रेरिका सनातना सर्वेषु पदार्थेषु व्याप्तास्ति तस्या उत्पत्तिनिरोधाभ्यां बहूनि कार्य्याणि साद्ध्वैश्वर्य्यं प्राप्नुत ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो विद्युतरूपी अग्नी संपूर्ण कारागिरांना दूताप्रमाणे प्रेरणा करणारा, अनादि कालापासून सिद्ध व संपूर्ण पदार्थांमध्ये व्याप्त असतो, त्याची उत्पत्ती व नियमन करून पुष्कळ कार्य सिद्ध करून ऐश्वर्य प्राप्त करा. ॥ ८ ॥